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सगोत्रीय विवाह सही या गलत?

सौरभ द्विवेदी "स्वप्नप्रेमी"
सौरभ द्विवेदी "स्वप्नप्रेमी"
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खाप पंचायतों के एक फरमान के बाद आजकल सगोत्रीय विवाह सही या गलत की चर्चा ने जन्म ले लिया है इसी पर मैंने कुछ कलमबद्ध करने का प्रयास किया है| जरा गौर से पढियेगा
भारतीय सनातन संस्कृति में सगोत्र विवाह न करने की परम्परा वैदिक काल से भी पुरानी है। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि निकट रक्त सम्बन्धियों में विवाह होने से कमजोर संतान उत्पन्न होती है। सामाजिक स्तर पर भी देखें तो सगोत्रीय विवाह न करने की परम्परा से समाज में व्यभिचार के अवसर कम होते हैं। एक ही कुल और वंश के लोग मर्यादाओं में बंधे होने के कारण सदाचरण का पालन करते हैं जिससे पारिवारिक और सामाजिक जटिलताएं उत्पन्न नहीं होतीं तथा संस्कृति में संतुलन बना रहता है।

यही कारण है कि सदियों से चली आ रही परम्पराओं के अनुसार हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में जातीय खांपों की पंचायतें सगोत्रीय विवाह को अस्वीकार करती आई हैं तथा इस नियम का उल्लंघन करने वालों को कठोर दण्ड देती आई हैं। कुुछ मामलों में तो मृत्युदण्ड तक दिया गया है। भारतीय संविधान के अनुसार किसी भी व्यक्ति को मृत्युदण्ड अथवा किसी भी तरह का दण्ड देने का अधिकार केवल न्यायिक अदालतों को है। फिर भी परम्परा और सामाजिक भय के चलते लोग, जातीय पंचायतों द्वारा दिये गये मृत्यु दण्ड के निर्णय को छोड़कर अन्य दण्ड को स्वीकार करते आये हैं।

इन दिनाें हरियाणा में सगोत्रीय विवाह के विरुद्ध आक्रोश गहराया है तथा कुछ लोग सगोत्रीय विवाह पर कानूनन रोक लगाने की मांग कर रहे हैं। जबकि सगोत्रीय विवाह ऐसा विषय नहीं है जिसके लिये कानून रोक लगाई जाये। हजारों साल पुरानी मान्यताओं और परम्पराओं के चलते यह विषय व्यक्तिगत भी नहीं है कि जब जिसके जी में चाहे, वह इन मान्यताओं और परम्पराओं को अंगूठा दिखाकर सगोत्रीय विवाह कर ले। वस्तुत: यह सामाजिक विषय है और इसे सामाजिक विषय ही रहने दिया जाना चाहिये। इसे न तो कानून से बांधना चाहिये और न व्यक्ति के लिये खुला छोड़ देना चाहिये। सगोत्रीय विवाह का निषेध एक ऐसी परम्परा है जिसके होने से समाज को कोई नुक्सान नहीं है, लाभ ही है, इसलिये इस विषय पर समाज को ही पंचायत करनी चाहिये।

जातीय खांपों की पंचायतों को भी एक बात समझनी चाहिये कि देश में कानून का शासन है, पंच लोग किसी को किसी भी कृत्य के करने अथवा न करने के लिये बाध्य नहीं कर सकते। उन्हें चाहिये कि वे अपने गांव की चौपाल पर बैठकर सामाजिक विषयों की अच्छाइयों और बुराइयों पर विचार–विमर्श करें तथा नई पीढ़ी को अपनी परम्पराओं, मर्यादाओं और संस्कृति की अच्छाइयों से अवगत कराते रहें। इससे आगे उन्हें और कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। जोर–जबर्दस्ती तो बिल्कुल भी नहीं।
लेकिन सगोत्रीय विवाह के पक्षधर लोंगों को भी समझना चाहिए कि न तो ये धर्म संगत है और न ही विज्ञानं संगत | धर्म के साथ साथ विज्ञानं भी इसे नुकसानदेह मानता है और दोनों का ये कहना है कि इससे संतान मंदबुद्धि और शारीरिक तौर पर कमजोर होगी! और अगर आज के परिपेक्ष में देखा जाये तो आमतौर पर ऐसा देखा भी जा रहा है
*आपस्तम्ब धर्मसूत्र कहता है- ‘संगौत्राय दुहितरेव प्रयच्छेत्” (समान गौत्र के पुरुष को कन्या नहीं देना चाहिए)।
सगोत्रीय विवाह न करने के एक नहीं हजार कारण है लेकिन फिर भी अगर कोई इसे न मानकर ऐसा करता है तो ये उसका व्यक्तिगत मामला है मैं उसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहता लेकिन जो तथ्य हैं मैं उन्हें ही रखने का प्रयास कर रहा हूँ!
अलग अलग पुस्तकों और विद्वानों के मतानुसार गोत्रों की संख्या अलग अलग बताई गई है लेकिन जो सबसे ज्यादा प्रमाणिक और प्रचलन में है उनके अनुसार गोत्रों की संख्या आठ है जो निम्न महान ऋषियों के नाम पर हैं
विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्ति
गोत्रों का अपना एक विशेष महत्त्व होता है
जाति की तरह गोत्रों का भी अपना महत्‍व है ।
1. गोत्रों से व्‍यक्ति और वंश की पहचान होती है ।
2. गोत्रों से व्‍यक्ति के रिश्‍तों की पहचान होती है ।
3. रिश्‍ता तय करते समय गोत्रों को टालने में सुविधा रहती है ।
4. गोत्रों से निकटता स्‍थापित होती है और भाईचारा बढ़ता है ।
5. गोत्रों के इतिहास से व्‍यक्ति गौरवान्वित महसूस करता है और प्रेरणा लेता है ।
अंत में बाद इतना कहूँगा की मैंने अपने विवेक और तमाम महापुरुषों के लेखों को पढ़कर जो समझा वही लिखा है अगर कुछ गलतियाँ हुई हों तो क्षमाप्रार्थी हूँ
आपका अनुज- डा. सौरभ द्विवेदी “स्वप्नप्रेमी”

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